मैं कौन हूँ
अम्मा कहती
तू मेरे जीवन मे
खुशियों की पेटी है
तू मेरी प्यारी सी बेटी है।
मेरे अरमानो की
चहकती चिड़िया है।
बाबा कहते
तू मेरी नटखट सी
गुड़िया है।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
मैं कौन हूँ
अम्मा कहती
तू मेरे जीवन मे
खुशियों की पेटी है
तू मेरी प्यारी सी बेटी है।
मेरे अरमानो की
चहकती चिड़िया है।
बाबा कहते
तू मेरी नटखट सी
गुड़िया है।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
हे! तात मैंने कई बार सुना है
सत्य सत्य तुमने जो धुना है!
मेरी मति भ्रमित हो जाती
क्या रहस्य यह समझ न पाती।
तात मुदित हो अति हर्षाये
अपने जैसा शिष्य जो पाये।
ज्ञान कुंज से फूल चुनो
देववाणी का मूल सुनो।
जिनसे बनते हैं शब्द कई
वे तत्व धातु कहलाते हैं।
सत्य शब्द का मूल रूप
सुनो तुम्हें हम बतलाते है।
दो धातुओं सत और तत से
मिलकर बनता सत्य है।
धातु सत का अर्थ 'यह' है
धातु तत का अर्थ 'वह' है।
यह और वह दोनों ही सत्य हैं
मैं और तुम दोनों ही सत्य हैं।
मुझमें तुम हो तुझमें मैं हूँ
हम दोनों ईश स्वरूप है।
यही सत्य है परम शाश्वत
यही सृष्टि का रूप है।
अर्थात 'अहंब्रह्मास्मि' वही है
जो 'तत्वमसि' में कहा गया।
हे तात! तुम्हारी अनुकंपा से
यह रहस्य समझ में आ गया।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
गांव गई तो मुझे मिला
बाबा का घर
मिट्टी की दीवारें
खपरैल और छप्पर
खपरैल की मुंडेर पर
घड़े से बनी
कलशनुमा कलाकृति
घर को बनाती खूबसूरत,
घर अब घर नही
बल्कि कहलाता
बाबा की बखरी।
गांव की पहचान थी
वो बखरी
या यूं कहें कि गांव
उस बखरी के नाम से ही
जाना जाता था।
मेरा गांव
बाबा की बखरी।
बखरी में कई कमरे थे
हर कमरे में एक छोटा
परिवार रहता था
और हर कमरे का द्वार
आंगन में खुलता था।
हमारे शहर के फ्लैट से
बिल्कुल अलग
उस आंगन में सब का
भोजन एक साथ पकता था
और हर परिवार मिलकर
पकाता और खाता था
कहने को छोटे छोटे कई
परिवार थे
लेकिन वास्तव में सब एक ही
कड़ी से साकार थे।
एक बड़ा संयुक्त परिवार
हुआ करता था
हर सुख दुख आंगन में
बैठ बांट लिया करता था
जरूरत नही होती थी
किसी गैर को अपना
दुःख बयाँ करने की
क्योकि बखरी के अंदर
और बखरी के बाहर
सब अपने ही तो थे
कोई गैर नही था।
आज वो कड़ी
मेरे बाबा हमारे बीच नही है
और बाबा की बखरी खाली
वीरान पड़ी है।
क्योकि हम प्रगति कर गए है।
और हमने बना लिए हैं
अलग अलग घर।
बस नही बना पाए तो
वो कड़ी
वो बखरी
जैसे बाबा ने बनाई थी।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
निंदिया रानी नैनो में आ जा,
बिटिया को सपने सुहाने दिखा जा।
चंदा के झूले में परियों सी झूले,
सुंदर सजीले फूलों को छूलें।
महके हवाओं में खुशबू के जैसे,
सितारों की टिमटिम में दीपक जला जा।
शीतल हवाओं में पत्तों की सर-सर,
गाते पतंगों के मीठे मधुर स्वर।
निशा खिल रही है कमल खिल रहे हैं,
अंधेरा है सुंदर जग को सुना जा।
सूरज छुपा है न जाने कहाँ पर,
तू सोके जागे तो आए निकलकर।
सो जा बिटिया रानी सो जा,
निंदिया के आंचल में छुप कर सो जा।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
रोती है चिल्लाती है,
माँ जब नित नहलाती है।
ठंडे पानी से डर लगता है,
शायद यही जताती है।
धमा चौकड़ी करती है,
मिट्टी धूल में सनती है।
जल्द पकड़ न आती है,
माँ फिर विनती करती है।
चलो नहा लो बिटिया रानी,
बंद करो अपनी मनमानी।
रगड़ रगड़ माँ मलती फिर,
बिटिया की न चलती फिर।
बिटिया रानी रोज नहाती,
तन मन दोनों स्वच्छ कराती।
दैवीय गुण है स्वच्छता,
माँ सिखलाती सभ्यता।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
एक चींटी चली जा रही,
अपनी मस्ती में गा रही।
दूर शक्कर की एक ढेली,
दिख रही थी पड़ी अकेली।
बिटिया रानी उसी डगर पर,
चली झूमकर डग मग कर।
कदमों के नीचे न आये,
नन्ही चींटी दब न जाये।
आने वाली है विपदा,
चींटी को है नही पता।
दोनों ही मासूम अबोध,
पर किसको है इसका बोध।
निरपराध अपराधी होगी,
क्या चींटी की बर्बादी होगी।
नहीं! सृष्टि स्वयं संरक्षक है,
भक्षक ही रक्षक है।
नन्हे विवेक ने आंखे खोली,
बिटिया रानी टीटी बोली।
कदम बचाकर रखा डगमग,
नन्ही चींटी हुई सुरक्षित।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
फलों की टोकरी में फल रखे सेब के,
बाजार से लाई थी चुनकर माँ देख के।
सुंदर सजीले मधुर स्वाद के,
चमकदार सारे बेदाग से।
था एक सेब अधकुतरा हुआ,
माँ ने न जाना कि ये कब हुआ।
घर मे न चूहे न बिल्ली का आना,
फल किसने कुतरा कोई तो बताना।
तभी लुढ़कता एक और फल आया,
बिटिया ने फेंका उछल कर आया।
कुतरा हुआ वह भी पहले जैसा,
माँ ने समझा क्यों हुआ आज ऐसा।
पूरी हुई यूँ माँ की तहक़ीक़ात,
जब दिखे बिटिया के पहले “दो दाँत”।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
नन्हे कदमों से छम छम,
बजती पायल की झंकार।
ठुमक ठुमक कर चलती बिटिया,
करती है सबका मनुहार।
माँ की ओर इशारा करती,
माँ मुझको आँचल में ले ले।
मेरी मुस्कानों से अपनी,
खुशियों की झोली भर ले।
छत पर आए चंदा मामा,
चहक उठी है बिटिया रानी।
रात चांदनी में रचेगी,
कुदरत कोई नई कहानी।
टिम टिम करता जुगनू आया,
दौड़ी भागी हाथ न आया।
फिर माँ ने आँचल फैलाया,
बिटिया रानी को बहलाया।
बिटिया रानी जिद है करती,
पकड़ के लाओ मानो कहती।
धरती के सितारे हैं,
ये नन्हे ध्रुवतारे हैं।
झिलमिल झिलमिल बहने दो,
इनको टिमटिम करने दो।
माँ की सारी बातें मानी
बिटिया रानी हुई सयानी।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
मैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी
मुस्कानों की वजह न छीनो,
सोन परी की कथा कहानी
नानी माँ की जुबां न छीनों।दादी दादा चाची चाचा
भइया भाभी काकी काका,
सांझ ढले आँगन मे जमघट
रिश्तों की मखमल गर्माहट।
जीवन मे नवप्राण भरे जो,
आँगन की वो हवा न छीनो।तुमने पगडंडी पर चलकर
खेतों की हरियाली देखी,
रिमझिम सावन की फुहार में
मदमाती पनियारी देखी।
सरसों के पीले फूलों से
धरती का श्रृंगार किया,
नन्हे मुस्काते बिरवे से
घर आँगन गुलजार किया।
फुलवारी में हरित कला की
बलखाती सी लता न छीनों।बरगद पत्थर पीपल पूजा
नीम आम से भरा बगीचा,
शीतल पवन चले पुरवाई
अमराई में रात बिताई।
उन रातों में खलिहानों की
रखवाली की सजा न छीनों।भेदभाव का भाव था गहरा
जात पात का कड़ा था पहरा,
फिर भी जब विपदा आती
दर्द में काया डूबी जाती ,
गांव समूचा मदद को आता
राहत की चादर दे जाता।
नींद मधुमयी आती फिर तो
हवा बसंती गाती फिर तो,
उन गांवों के अपनेपन की
ऐसी पावन फिजा न छीनों।कोयल कूके नित आंगन में
गौरैया की फुदकन घर में,
पंख फैलाये मोर नाचते
पपीहा गाये कुंज कानन में।
रात्रि अमावस में चंदा से
सूना होता है जब अम्बर,
धरती पर नन्हे दीपों की
जुगनू लहराते हैं चादर ।
दृश्य सुनहरे तुमने देखे
मुझसे उनका पता न छीनों।ताल तलैया पोखर सूखे
बदरा जैसे नभ से रूठे,
धूल भरा है शहर तुम्हारा
नभ से बरस रहा अंगारा।
छाया वाले पेड़ कट गए
पथिक राह में गिरे निपट गए।
छद्म क्षुधा की रार रही है
हवा जलाकर मार रही है।
प्रकृति कहती सुनो ध्यान से
वसुंधरा की धरा न छीनों।
मैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी
मुस्कानों की वजह न छीनों।देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"